Lekhika Ranchi

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काजर की कोठरी--आचार्य देवकीनंदन खत्री


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कल्याणसिंह: (ताज्जुब से) आप लौटे क्यों? क्या कोई दूसरी बात पैदा हुई?


सूरजसिंह: हम लोग हरनंदन से मिलने के लिए उसके कमरे में गए तो मालूम हुआ कि वह बाँदी रंडी के डेरे में बैठा हुआ दिल बहला रहा है।


कल्याणसिंह: (चौंककर) बाँदी रंडी के यहाँ! नहीं, कभी नहीं, वह ऐसा लड़का नहीं है, और फिर ऐसे समय में जबकि चारों तरफ उदासी फैली हुई हो और हम लोग एक भयानक घटना के शिकार हो रहे हों! यह बात दिल में नहीं बैठती।


सूरजसिंह: मेरा भी यही ख्याल है और इसी से निश्चय करने के लिए मैं रामसिंह को उस तरफ भेजकर आपके पास आया हूँ।


कल्याणसिंह: अगर यह बात सच निकली तो बड़े ही शर्म की बात होगी। हँसी-खुशी के दिनों में ऐसी बातों पर लोगों का ध्यान विशेष नहीं जाता और न लोग इस बात को इतना बुरा ही समझते हैं, मगर आज ऐसी आफत के समय में मेरे लड़के हरनंदन का ऐसा करना बड़े शर्म की बात होगी, हर एक छोटा-बड़ा बदनाम करेगा और समधियाने में तो यह बात न मालूम किस रूप से फैलकर कैसा रूपक खड़ा करेगी सो कह नहीं सकते।


सूरजसिंह: बात तो ऐसी ही है मगर फिर भी मैं यही कहता हूँ कि हरनंदन ऐसा लड़का नहीं है। उसे अपनी बदनामी का ध्यान उतना ही रहता है, जितना जुआरी को अपना दाँव पड़ने का उस समय जबकि कौड़ी किसी खिलाड़ी के हाथ से गिरा ही चाहती हो।


इतने ही में हरनंदन को साथ लिए हुए रामसिंह भी आ पहुँचा, जिसे देखते ही कल्याणसिंह ने पूछा, “क्यों जी रामसिंह! हरनंदन से कहाँ मुलाकात हुई?”


रामसिंह: बाँदी रंडी के डेरे में।


कल्याणसिंह: (चौंककर) हैं! (हरनंदन से) क्यों जी तुम कहाँ थे?


हरनंदन: बाँदी रंडी के डेरे में!


इतना सुनते ही कल्याणसिंह की आँखें मारे क्रोध से लाल हो गईं और मुँह से एक शब्द भी निकलना कठिन हो गया। उधर यही हाल सूरजसिंह का भी था। एक तो दुख और क्रोध ने उन्हें पहिले से ही दबा रखा था, मगर इस समय हरनंदन की ढिठाई ने उन्हें आपे से बाहर कर दिया। वे कुछ कहना ही चाहते थे कि रामसिंह ने कहा-


रामसिंह: (कल्याणसिंह से) मगर हमारे मित्र इस योग्य नहीं हैं कि आपको कभी अपने ऊपर क्रोधित होने का समय दें। यद्यपि अभी तक मुझे कुछ मालूम नहीं हुआ है तथापि मैं इतना कह सकता हूँ कि इनके ऐसा करने का कोई-न-कोई भारी सबब जरूर होगा।


हरनंदन: बेशक ऐसा ही है।


कल्याणसिंह: (आश्चर्य से) बेशक ऐसा ही है!


हरनंदन: जी हाँ!


इतना कह हरनंदन ने कागज का एक पुर्जा जो बहुत मुड़ा और बिगड़ा हुआ था, उनके सामने रख दिया। कल्याणसिंह ने बड़ी बेचैनी से उसे उठाकर पढ़ा और तब यह कहकर अपने मित्र सूरजसिंह के हाथ में दे दिया कि ‘बेशक ऐसा ही है।’ सूरजसिंह ने भी उसे बड़े गौर से पढ़ा और ‘बेशक ऐसा ही है’ कहते हुए अपने लड़के रामसिंह के हाथ में दे दिया और उसे पढ़ने के साथ ही रामसिंह के मुँह से भी यही निकला कि ‘बेशक ऐसा ही है!!’





जमींदार लालसिंह के घर में बड़ा ही कोहराम मचा हुआ था। उसकी प्यारी लड़की सरला घर में से यकायक गायब हो गई थी और वह भी इस ढंग से कि याद करके कलेजा फटता और विश्वास होता था कि उस बेचारी के खून से किसी निर्दयी ने अपना हाथ रंगा है। बाहर-भीतर हाहाकार मचा हुआ था और इस खयाल से तो और भी ज्यादे रुलाई आती थी कि आज ही उसे ब्याहने के लिए बाजे-गाजे के साथ बरात आवेगी।

लालसिंह मिजाज का बड़ा ही कड़ुआ आदमी था। गुस्सा तो मानो ईश्वर के घर ही से उसके हिस्से में पड़ा था। रंज हो जाना उसके लिए कोई बड़ी बात न थी, जरा-जरा से कसूर पर बिगड़ जाता और बरसों की जान-पहचान तथा मुरौवत का कुछ भी खयाल न करता। यदि विशेष प्राप्ति की आशा न होती तो उसके यहाँ नौकर, मजदूरनी या सिपाही एक भी दिखाई न देता। इसी से प्रगट है कि वह लोगों को देता भी था, मगर उनका दान इज्जत के साथ न होता और लोगों की बेइज्जती का फजीहता करने में ही वह अपनी शान समझता था। यह सबकुछ था मगर रुपए ने उसके सब ऐबों पर जालीलेट का पर्दा डाल रखा था। उसके पास दौलत बेशुमार थी, मगर लड़का कोई भी न था, सिर्फ एक लड़की वही सरला थी जिसके संबंध से आज दो घरों में रोना-पीटना मचा हुआ था। वह अपनी इस लड़की को प्यार भी बहुत करता था और भाई-भतीजे मौजूद रहने पर भी अपनी कुल जायदाद जिसे उसने अपने उद्योग से पैदा किया था, इसी लड़की के नाम लिखकर तथा वह वसीयतनामा राजा के पास रखकर अपने भाई-भतीजों को जो रुपए-पैसे की तरफ से दुखी रहा करते थे, सूखा ही टरका दिया था, हाँ खाने-पीने की तकलीफ वह किसी को भी नहीं देता था। उसके चौके में चाहे कितने ही आदमी बैठकर खाते इसका वह कुछ खयाल न करता बल्कि खुशी से लोगों को अपने साथ खाने में शरीक करता था।

अपनी लड़की सरला के नाम जो वसीयतनामा उसने लिखा था वह भी कुछ अजब ढंग का था। उसके पढ़ने ही से उसके दिल का हाल जाना जाता था। पाठकों की जानकारी के लिए उस वसीयतनामे की नकल हम यहाँ पर देते हैं–

‘मैं लालसिंह

‘अपनी कुल जायदाद जिसे मैंने अपनी मेहनत से पैदा किया है और जो किसी तरह बीस लाख रूपै से कम नहीं है और जिसकी तकमील नीचे लिखी जाती है, अपनी लड़की सरला के नाम से जिसकी उम्र इस वक्त चौदह (14) वर्ष की है वसीयत करता हूँ। इस जायदाद पर सिवाय सरला के और किसी का हक न होगा बशर्ते कि नीचे लिखी शर्तों का पूरा बर्ताव किया जाए-

(1) सरला को अपनी कल जायदाद का मैनेजर अपने पति को बनाना होगा।

(2) सरला अपनी जायदाद (जो मैं उसे देता हूँ) या उसका कोई हिस्सा अपने पति की इच्छा के विरूद्ध खर्च न कर सकेगी और न किसी को दे सकेगी।

(3) सरला के पति को सरला की कुल जायदाद पर बतौर मैनेजरी के हक होगा, न कि बतौर मालिकाना।

(4) सरला का पति अपनी मैनेजरी की तनखाह (अगर चाहे तो) पाँच सौ रूपै महीने के हिसाब से इस जायदाद की आमदनी में से ले सकेगा।

(5) सरला की शादी का बंदोबस्त मैं कल्याणसिंह के लड़के हरनंदनसिंह के साथ कर चुका हूँ और जहाँ तक संभव है अपनी जिंदगी में उसी के साथ कर जाऊँगा। कदाचित इसके पहिले ही मेरा अंतकाल हो जाए तो सरला को लाजिम होगा कि उसी हरनंदनसिंह के साथ शादी करे। अगर इसके विपरीत किसी दूसरे के साथ शादी करेगी तो मेरी कुल जायदाद के (जिसे में इस वसीयतनामे में दर्ज करता हूँ) आधे हिस्से पर हमारे चारों सगे भतीजों–राजाजी, पारसनाथ, धरनीधर और दौलतसिंह का या उनमें से उस वक्त जो हों, का हक हो जाएगा और बाकी के आधे हिस्से पर सरला के उस पति का अधिकार होगा, जिसके साथ कि वह मेरी इच्छा के विरुद्ध शादी करेगी। हाँ, अगर शादी होने के पहिले सरला को हरनंदन की बदचलनी का कोई सबूत मिल जाए तो उसे अख्तियार होगा कि जिसके साथ जी-चाहे शादी करे। उस अवस्था में सरला को मेरी कुल जायदाद पर उसी तरह अधिकार होगा, जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है। अगर शादी के बाद हरनंदनसिंह की बदचलनी का कोई सबूत पाया जाए तो सरला को आवश्यक होगा कि उसे अपनी मैनेजरी से खारिज कर दे और अपनी कुल जायदाद राजा के सुपुर्द करके काशी चली जाए और वहाँ केवल एक हजार रुपै महीना राजा से लेकर तीर्थवास करे और यदि ऐसा न करे तो राजा को (जो उस वक्त में यहाँ का मालिक हो) जबरदस्ती ऐसा करने का अधिकार होगा।

(6) सरला के बाद सरला की संपत्ति का मालिक धर्मशास्त्रानुसार होगा।

जायदाद की फिहरिस्त और तारीख इत्यादि

इस वसीयतनामे के पढ़ने ही से पाठक समझ गए होंगे कि लालसिंह कैसी तबीयत का आदमी और अपनी जिद्द का कैसा पूरा था। इस समय उसने जब यकायक सरला के गायब होने का हाल लौंडी की जुबानी सुना तो उसके कलेजे पर एक चोट-सी लगी और वह घबड़ाया हुआ मकान के अंदर चला गया जहाँ औरतों में विचित्र ढंग की घबड़ाहट फैली हुई थी। सरला की माँ उस कोठरी में बेहोश पड़ी हुई थी, जिसमें से सरला यकायक गायब हो गई थी और जहाँ उसके बदले में चारों तरफ खून के और निशान दिखाई दे रहे थे। कई औरतें उस बेचारी के पास बैठी हुईं रो रही थीं, कई उसे होश में लाने की फिक्र कर रही थीं, और कई इस आशा में कि कदाचित सरला कहीं मिल जाए, ऊपर-नीचे और मकान के कोनों में घूम-घूमकर देखभाल कर रही थीं।

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